प्रतिवर्ष ज्येष्ठ मास की अमावस्या
को उत्तर भारत की सुहागिनों द्वारा तथा ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को दक्षिण भारत
की सुहागिन महिलाओं द्वारा वट सावित्री व्रत
का पर्व मनाया जाता है। कहीं कहीं इस व्रत को बड़मावस भी कहा जाता है। कहा जाता
है कि वट वृक्ष की जड़ों में ब्रह्मा, तने
में भगवान विष्णु व डालियों व पत्तियों
में भगवान शिव का निवास स्थान माना जाता
है। इस व्रत में महिलाएं वट वृक्ष की पूजा करती हैं, सती सावित्री की कथा सुनने व वाचन करने से सौभाग्यवती महिलाओं की अखंड
सौभाग्य की कामना पूरी होती है।
सत्यवान सावित्री की कहानी
भारत की पवित्रता को दर्शाने वाली कहानियों में से एक है। प्राचीन कहानियों में प्रचलित
सत्यवान सावित्री की कथा बहुत प्रसिद्ध है। यह कहानी एक ऐसी भारतीय नारी की है, जो
यमराज से अपने पति के प्राण बचाने के लिए
यमराज से लड़ जाती है और उसमें सफल भी हो जाती है। हमे यह तो नहीं पता कि इस कहानी
में कितनी सच्चाई है लेकिन प्राचीन ग्रंथों के आधार पर हम इस कहानी को यहाँ प्रस्तुत
कर रहे है। तो आइए मित्रों इस पवित्र प्रेम कहानी के बारे में विस्तार से जानते हैं-
पौराणिक कथा के अनुसार भद्र देश के
राजा अश्वपति के कोई संतान न थी। उन्होंने संतान की प्राप्ति के लिए अनेक वर्षों तक
तप किया जिससे प्रसन्न हो देवी सावित्री ने प्रकट होकर उन्हें पुत्री का वरदान दिया।
फलस्वरूप राजा को पुत्री प्राप्त हुई और उस कन्या का नाम सावित्री ही रखा गया।
सावित्री अत्यंत सुंदर सभी गुणों से
संपन्न कन्या थी, जिसके लिए योग्य वर न मिलने के कारण सावित्री के पिता बहुत चिंतित
थे। महाराज ने अपनी पुत्री के लिए योग्य वर ढूंढने के लिए बहुत प्रयास किये परन्तु
योग्य वर नहीं ढूंढ सके। अन्ततः उन्होंने सावित्री से कहा बेटी अब आप विवाह के योग्य
हो गयी है इसलिए स्वयं ही अपने लिए योग्य वर चुन लें। तब महाराज ने अपने मंत्री के
साथ सावित्री को वर की तलाश में भेज दिया।
सावित्री अपने मन के अनुकूल वर का
चयन कर जब लौटी तो उसी दिन महर्षि नारद उनके यहां पधारे। नारदजी के पूछने पर सावित्री
ने कहा कि शाल्वदेश के राजा महाराज द्युमत्सेन जिनका राज्य छीन लिया गया है, जो अंधे
हो गए हैं और अपनी पत्नी सहित वन में रह रहे हैं, उन्हीं के इकलौते पुत्र सत्यवान की
कीर्ति सुनकर उन्हें मैंने पति रूप में स्वीकार किया है।
तब नारदमुनि बोले राजन आपकी कन्या
ने वर खोजने में भारी भूल की है क्योंकि इस वर में एक दोष है। तत्क्षण राजा ने पूछा
भगवन बताये वो कौन सा दोष है? तब नारदजी ने कहा सत्यवान गुणवान तथा धर्मात्मा है परन्तु
वह अल्पायु है और एक वर्ष के बाद ही उसकी मृत्यु हो जाएगी। नारदजी की बात सुनकर राजा
अश्वपति का चेहरा मुरझा गया। उन्होंने सावित्री से किसी अन्य को अपना पति चुनने की
सलाह दी परंतु सावित्री ने उत्तर दिया कि आर्य कन्या होने के नाते जब मैं सत्यवान का
वरण कर चुकी हूं तो अब वे चाहे अल्पायु हों या दीर्घायु, मैं किसी अन्य को अपने हृदय
में स्थान नहीं दे सकती। सावित्री ने नारदजी से सत्यवान की मृत्यु का समय ज्ञात कर
लिया। उसके बाद सावित्री के द्वारा चुने हुए वर सत्यवान से धुमधाम और पूरे विधि-विधान
से विवाह करवा दिया गया।
सावित्री अपने श्वसुर परिवार के साथ
जंगल में रहने लगी। सावित्री एक-एक दिन गिनती रहती थी। उसके दिल में नारदजी का वचन
सदा ही बना रहता था। सत्यवान व सावित्री के विवाह के कुछ समय बीत जाने के बाद जिस दिन
सत्यवान मरने वाला था वह दिन नजदीक आ चुका था। सावित्री ने नारदजी द्वारा बताये हुए
दिन से तीन दिन पूर्व से ही उपवास शुरू कर दिया।
नारदजी द्वारा निश्चित तिथि को जब सत्यवान लकड़ी काटने जंगल के लिए चला तो सावित्री
ने उससे कहा कि मैं भी साथ चलुंगी। तब सत्यवान ने सावित्री से कहा तुम व्रत के कारण
कमजोर हो रही हो। जंगल का रास्ता बहुत कठिन और परेशानियों भरा है। इसलिए आप यहीं रहें।
लेकिन सावित्री नहीं मानी उसने जिद पकड़ ली और सास−श्वसुर से आज्ञा लेकर वह भी सत्यवान
के साथ जंगल की ओर चल दी।
जंगल में पहुंचकर सत्यवान लकडियाँ
काटने वृक्ष पर चढे, परन्तु तुरंत ही उन्हें चक्कर आने लगा और वे कुल्हाडी फेंककर नीचे
उतर आये। सत्यवान ने कहा- मेरे सिर में चक्कर आ रहा है। सावित्री ने सत्यवान को बड़
के पेड़ के नीचे लिटा कर उनका सिर अपनी गोद में रख लिया और अपने आंचल से उन्हें हवा
करने लगी। सत्यवान धीरे-धीरे बेहोश होने लगा और कुछ क्षण में उसके प्राण पखेरू उड़
गए।
यह सब सावित्री पहले से जानती थी।
फिर भी उसने अपने पति को निष्प्राण देखा और वह रोने लगी। उसी समय उसे वहां एक बहुत
भयानक तेज पूर्ण पुरुष दिखाई दिया। जिसके हाथ में पाश था। सावित्री ने कहा आप कौन है।
तब यमराज ने कहा मैं यमराज हूं। मुझे लोग धर्मराज भी कहते हैं, मैं तुम्हारे पति के
प्राण लेने आया हूं। तुम्हारे पति की आयु पूरी हो गई है, मैं उसके प्राण लेकर जा रहा
हूं। इसके बाद यमराज सत्यवान के शरीर में से प्राण निकालकर उसे पाश में बांधकर दक्षिण
दिशा की ओर चल दिए।
जब धर्मराज सत्यवान के प्राण को लेकर
चल दिए तो सावित्री भी उनके पीछे-पीछे चल पड़ी। उन्हें आता देख यमराज ने कहा कि- हे
पतिव्रता नारी! पृथ्वी तक ही पत्नी अपने पति का साथ देती है। अब तुम वापस लौट जाओ।
उनकी इस बात पर सावित्री ने कहा- जहां मेरे पति रहेंगे मुझे उनके साथ रहना है। यही
मेरा पत्नी धर्म है। पहले तो यमराज ने उसे देवी-विधान समझाया परन्तु उसकी निष्ठा और
पतिपरायणता देख कर यमराज ने उसे समझाते हुए कहा मैं उसके प्राण नहीं लौटा सकता। उन्होंने
सावित्री को वर मांगने को कहा और बोले- मैं तुम्हें तीन वर देता हूं। बोलो तुम कौन-कौन
से तीन वर लोगी।
सावित्री बोली-मेरे सास-ससुर वनवासी
तथा अंधे है। उन्हें आप दिव्य ज्योति प्रदान करें। यमराज ने कहा, ऐसा ही होगा और अब
तुम लौट जाओ। यमराज की बात सुनकर उसने कहा, भगवान मुझे अपने पतिदेव के पीछे-पीछे चलने
में कोई परेशानी नहीं है। पति के पीछे चलना मेरा कर्तव्य है। यह सुनकर उन्होने फिर
से उसे एक और वर मांगने के लिये कहा। सावित्री बोली, हमारे ससुर का राज्य छिन गया है,
उसे वे पुन: प्राप्त कर सकें, साथ ही धर्मपरायण बने रहें। यमराज ने यह वर देकर कहा,
अच्छा अब तुम लौट जाओ परंतु वह न मानी।
यमराज ने कहा कि पति के प्राणों के
अलावा जो भी मांगना है मांग लो और लौट जाओ। इस बार सावित्री ने अपने को सत्यवान के
सौ पुत्रों की मां बनने का वरदान मांगा। यमराज ने तथास्तु कहा और आगे चल दिए। सावित्री
फिर भी उनके पीछे-पीछे चलती रही। उसके इस कृत से यमराज नाराज हो जाते हैं। यमराज को
क्रोधित होते देख सावित्री उन्हें नमन करते हुए उन्हें कहती है, आपने मुझे सौ पुत्रों
की मां बनने का आशीर्वाद तो दे दिया लेकिन बिना पति के मैं मां किस प्रकार से बन सकती
हूं। इसलिये आप अपना यह तीसरा वरदान पूरा कीजिए।
सावित्री की पतिव्रत धर्म की बात जानकर
यमराज ने सत्यवान के प्राण को अपने पाश से मुक्त कर दिया। सावित्री सत्यवान के प्राण
लेकर वट वृक्ष के नीचे पहुंची जहां सत्यवान का मृत शरीर रखा था। सत्यवान के मृत शरीर
में फिर से संचार हुआ। इसके बाद सावित्री ने अपने को पति को पानी पिलाकर और फिर स्वयं
पानी पीकर अपना व्रत तोडा। इस प्रकार सावित्री ने अपने पतिव्रता व्रत के प्रभाव से
न केवल अपने पति को पुन: जीवित करवाया बल्कि सास-ससुर को नेत्र ज्योति प्रदान करते
हुए उनके ससुर को खोया राज्य फिर दिलवाया। इस प्रकार चारों दिशाएं सावित्री के पतिव्रत
धर्म के पालन की कीर्ति से गूंज उठीं।
तभी से वट सावित्री अमावस्या और वट सावित्री पूर्णिमा के दिन वट वृक्ष का पूजन-अर्चन करने का विधान है। मान्यता है कि यह व्रत
करने से सौभाग्यवती महिलाओं की मनोकामना पूर्ण होती है और उनका सौभाग्य अखंड रहता है।
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